Punjab Kesari 2021-04-21

दोमुंहे अमेरिका से सचेत रहे भारत

विगत दिनों सामने आए एक घटनाक्रम ने अमेरिका के वास्तविक चेहरे को पुन: रेखांकित कर दिया। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह भारत-अमेरिका के बीच संबंध प्रगाढ़ हो रहे है, उसमें 7 अप्रैल की एक घटना ने न केवल दोनों देशों के राजनयिक संबंधों में अड़ंगा डालने का काम किया है, अपितु अमेरिका ने भारत और चीन को एक लाठी से हांकने का प्रयास भी किया है। आखिर 7 अप्रैल को क्या हुआ था? उस दिन अमेरिकी नौसैनिक जहाज़ जॉन पॉल जोन्स (डीडीजी 53), जो विध्वंसक मिसाइलों से लैस था- उसने लक्षद्वीप समूह के समीप 130 समुद्री मील पश्चिम में भारत के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में न केवल बिना अनुमति प्रवेश करने का साहस किया, अपितु सार्वजनिक रूप से अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े ने अपनी वेबसाइट पर हेकड़ी दिखाते हुए इस अभियान की जानकारी दी। उसने कहा कि हमनें अपने शत्रुओं और मित्रों द्वारा समुद्र पर किए गए दावों चुनौती दी है। अपने बयान में अमेरिकी नौसेना ने इस कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अनुरूप बताते हुए कहा, "फ़्रीडम ऑफ़ नैविगेशन ऑपरेशन के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अंतर्गत अधिकारों, स्वतंत्रता और समुद्र के वैधानिक उपयोग को बरकरार रखा गया है और भारत के अत्यधिक समुद्री दावों को चुनौती दी गई है। जहां भी अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार अनुमति होगी, वहां अमेरिका उड़ान भरेगा, जहाज़ लेकर जाएगा और कार्रवाई करेगा।" अमेरिका का दावा है कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून उसे ऐसा करने का अधिकार देता है, किंतु भारत ने इससे इंकार किया है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "भारत की स्थिति यह है कि संयुक्त राष्ट्र की समुद्री क़ानून संधि अन्य राज्यों को विशेष आर्थिक क्षेत्र में और महाद्वीपीय शेल्फ में सैन्य अभ्यास या युद्धाभ्यास करने के लिए अधिकृत नहीं करता है, विशेषकर वो अभ्यास, जिनमें तटीय राज्य की सहमति के बिना हथियारों या विस्फोटकों का प्रयोग होता है। हमनें अमेरिकी सरकार को राजनयिक चैनलों के माध्यम से अपनी चिंताओं से अवगत कराया है।" वैश्विक राजनीति में साम्यवादी चीन का अधिनायकवाद और हिंद-प्रशांत क्षेत्र (दक्षिण चीन सागर सहित) में उसकी दादागिरी, जिसमें वह अन्य क्षेत्रीय देशों के समान हितों का विरोध करता है- उसे चुनौती देने के लिए अमेरिका इस प्रकार की पैंतरेबाजी करता आया है। किंतु भारत के विरुद्ध उसका ऐसा व्यवहार विश्व में उन देशों को गलत संदेश दे रहा है, जिन्हें अमेरिका अपना "मित्र" बताते थकता नहीं। वर्ष 2017 से अमेरिका- चीन के खिलाफ लामबंदी करने के लिए भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के रूप क्वाड सहयोगियों के साथ अन्य छोटे देशों के संपर्क में है। किंतु भारतीय विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में जबरन घुसना और इसपर खुलकर इसकी जानकारी देना- हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की रणनीति को दुष्प्रभावित करेगा। जहां कुटिल चीन का राजनीतिक अधिष्ठान हिंसक, असहिष्णु और मानवाधिकार विरोधी वामपंथी विचारधारा व अर्थव्यवस्था रुग्ण पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है, वही भारत विश्व में बहुलतावाद और लोकतंत्र के प्रतिबिंब के रूप में अनादिकाल से विद्यमान है। ऐसे अमेरिका द्वारा भारत और चीन को एक ही तराजू तौलने का क्या अर्थ है? वास्तव में, इसका उत्तर भारत में मोदी सरकार द्वारा चलाए जा रहे "आत्मनिर्भर भारत" और "मेक इन इंडिया" जैसे आर्थिक अभियानों पर अमेरिकी प्रशासन की चिंता में मिल सकता है। अमेरिका लगातार वर्तमान भारत के साथ व्यापार समझौते को बेहतर बनाने की बात कर रहा है, क्योंकि स्थानीय लोगों के हितों को बल देने वाली मोदी सरकार की योजनाओं से अमेरिकी सरकार और कंपनियों के हाथ पांव फूलने लगे हैं। विगत माह बाइडेन प्रशासन ने अमेरिकी संसद में कहा था कि भारत द्वारा जारी "आत्मनिर्भर भारत" और "मेक इन इंडिया" कार्यक्रम दोनों देशों के बीच व्यापार संबंधों में खड़ी होने वाली चुनौतियों का प्रतीक बन गए है। अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि (यूएसटीआर) ने अपनी 2021 की व्यापार नीति एजेंडा और 2020 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा, "भारत सरकार ने आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया है। किंतु साथ "मेक इन इंडिया" जैसे कार्यक्रमों को भी शुरू किया है, जो आयात के स्थान पर घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहित करता है।" रिपोर्ट में यह भी कहा गया है, "मई 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने और विदेशी आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भरता को कम करने के लिए देश को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की थी, जिसने द्विपक्षीय व्यापार संबंधों के समक्ष चुनौतियों को बढ़ा दिया है।" अमेरिकी बौखलाहट को इसी से सहज समझा जा सकता है। ऐसा नहीं कि राष्ट्रपति जो बाइडेन के सत्ता में आते ही अमेरिका, भारत को हेकड़ी दिखा रहा है। इससे पहले ट्रंप शासनकाल में अमेरिका 5 जून 2019 से अपने व्यापारिक वरीयता कार्यक्रम (जीएसपी) से भारत की पात्रता को समाप्त कर चुका था। तब मोदी सरकार ने घुटना प्रत्यारोपण और स्टेंट जैसे चिकित्सा उपकरणों को "जरूरी दवाओं" में शामिल करके उनकी कीमतों को नियंत्रित कर दिया था। मोदी सरकार की यह जनहितैषी नीति अमेरिकी कंपनियों के लिए किसी झटके से कम नहीं थी, क्योंकि मूल्य नियंत्रण से पहले 138 करोड़ की आबादी वाले भारत जैसे विशाल बाजार में अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों के घुटना प्रत्यारोपण और स्टेंट निर्माता कंपनियां चांदी काट रही थी। पिछले कुछ वर्षों से सामरिक हथियार, दवाओं से लेकर खिलौने, चिकित्सा आदि से जुड़े वस्तुएं, जो कलतक भारत अन्य देशों से आयात करता था- अब देश में उसका उत्पादन होने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। मैं अपने पिछले आलेखों में चर्चा कर चुका हूं कि चीन से अमेरिका का टकराव भारत से उसके मैत्रिपूर्ण संबंधों के कारण नहीं, अपितु विशुद्ध व्यापारिक हित और विश्व में अपना प्रभुत्व बरकरार रखने से संबंधित है। वैसे भी अमेरिका का विरोधीभासी और स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण कोई नया नहीं है। इस्लामी आतंकवाद के उन्मूलन हेतु विश्वव्यापी लामबंदी ऐसा ही एक उदाहरण है, जिसे अमेरिकी रुख ने न केवल विकृत बनाए रखा है, अपितु इसपर आज भी व्यापक, वस्तुनिष्ठ और निर्णायक चर्चा को होने से रोका है या फिर उसमें अवरोध खड़ा किया है। यही कारण है कि वर्ष 2001 में इस्लाम के नाम पर अमेरिका में हुए भीषण 9/11 न्यूयॉर्क आतंकी हमले के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप में "काफिर" हिंदू बहुल भारत के खिलाफ पाकिस्तान समर्थित जिहाद या फिर मजहबी हिंसा को "क्षेत्रीय विवाद" ही माना जाता है। हाल ही में बाइडेन प्रशासन ने अपने सैनिकों को इस वर्ष 11 सितंबर तक अफगानिस्तान से वापस बुलाने की बात कही। यह घोषणा तब की गई है, जब भारत क्षेत्रीय शांति को दीर्घायु बनाने हेतु बीते कुछ वर्षों से अफगानिस्तान में कई विकास परियोजनाओं में व्यस्त है, जिसमें वहां का नवनिर्मित संसद भवन भी शामिल है। ऐसे में बाइडेन प्रशासन के इस कदम से जहां भारत और वहां चल रहे विकास योजनाओं को झटका लगा है, वही तालिबान ने इसे अपनी विजय बता दिया है। 15 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, तालिबानी कमांडर हाजी हिकमत ने इसे अपनी जीत बताया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि अफगानिस्तान में तालिबान के जन्म और उसके प्रारंभिक पोषण में अमेरिका के सोवियत संघ विरोधी नीतियों की कितनी बड़ी भूमिका है। तालिबानी जिहादी उसी महमूद गजनी के मानसपुत्र है, जिसने इस्लाम के नाम पर प्राचीन भारत का भाग रहे गांधार (आज कंधार) में हिंदुओं, बौद्ध अनुयायियों का संहार के बाद शेष समाज का या तो सामूहिक मतांतरण किया था या फिर उन्हें खदेड़ा था और मंदिरों को लूटकर तोड़ा था। यही कारण है कि पाकिस्तान, जो स्वयं भी गजनी, कासिम, गौरी, बाबर, टीपू सुल्तान जैसे क्रूर इस्लामी आक्रमणकारियों को अपना प्रेरक और नायक मानता है- उसका वैचारिक-राजनीतिक अधिष्ठान समान मानसिकता के कारण तालिबान का समर्थन करता है। सच तो यह है कि बात चाहे इस्लामी पाकिस्तान-तालिबान की हो या फिर साम्यवादी चीन की- प्रत्येक मामले में अमेरिका, जो अपने क्रिया-कलापों से स्वयं को भू-राजनीति का अगुवा और विश्व का संरक्षक देश बताता थकता नहीं है- उसका स्वार्थी और विरोधाभासी आचरण कई वैश्विक समस्याओं के निदान में अवरोधक बना हुआ है। भारत के विशिष्ट आर्थिक समुद्री क्षेत्र में अमेरिकी नौसेना का अतिक्रमण- इसका एक और प्रमाण है।